प्राचीन काल से वनों के बीच अवस्थित है माँ वनदुर्गे

कालो खलखो
सिमडेगा: बोलबा प्रखण्ड अन्तर्गत मालसाडा गाँव में माँ वनदुर्गे शक्तिपीठ के रुप में विराजित भक्तों को दर्शन दे रही है। यहाँ सच्चे मन व श्रद्धा से मांगी गई हर मन्नते माँ वनदुर्गे पूर्ण करती है ,वनदुर्गा स्थल में ऊंचे – ऊंचे घने सखुए के पेड़ एवं चारो ओर जंगल व पहाड़ों से घिरे प्रकृतिक सौन्दर्य को विखेरते हुए अत्यंत ही रमणीक स्थल के रूप में विख्यात है ।
माँ वनदुर्गा का इतिहास

सन 1806 ई0 में मालसाडा गाँव के महादान टोंगरी में घने सखुए पेड़ों के बीच एक सखुए पेड़ के खोड़हर में माँ वनदुर्गे की मूर्ति को गाँव वालों ने देखा था । कुछ दिनों बाद मूर्ति वहाँ से विलुप्त हो गई बताया जाता है कि गाँव के विश्वनाथ सिंह पाहन को स्वपन मिला कि मूर्ति सरना स्थल के एक सखुए पेड़ के खोड़हर में मूर्ति विराजित है । पाहन ने गाँव के कुछ बुजुर्ग लोगों के पास रात में देखी गई स्वपन पर चर्चा किया, लोगों ने सरना स्थल जाकर देखने का निश्चय किया ।जब वहाँ जाकर देखा तो सचमुच ही एक पाषाण मूर्ति मौजूद थी। मूर्ति मिलने की सूचना टैसेर के राजा जगतपाल सिंह को दिया गया । राजा जगतपाल सिंह , लालू नारायण सिंह एवं उनके परिवार के लोग माँ दुर्गा के अनन्य भक्त थे । जंगलों में घूम-घूमकर पाषाणों पर अच्छत, चंदन, सिन्दूर लगाकर माँ की आराधना किया करते थे । पाहन द्वारा मूर्ति मिलने की सूचना दिए जाने पर पुलकित होकर स्वयं उस स्थान पर जाकर देखा तो वहाँ एक नील रंग के पाषाण की मूर्ति विराजित थी । गांव वालों ने मूर्ति को पेड़ के खोड़हर से नीचे उतारा और मूर्ति की नामकरण पर विचार किया । मूर्ति वनों के बीच पाए जाने के कारण उसका नाम वनदुर्गा रखा गया । सरना स्थल में ही विधिवत पूजन के पश्चात मूर्ति को वहीं स्थापित कर दिया गया । इसके बाद तत्काल एक दिन में ही मिट्टी एवं खपड़ा का एक छोटा सा मन्दिर का निर्माण किया गया ।राजा द्वारा माँ वनदुर्गा की अच्छी से सेवा पूजा हो इस विश्वास के साथ उन्होंने एक ब्राह्मण पण्डित को पुजारी के रूप में रखा गया । माँ वनदुर्गे ने ब्राह्मण पण्डित का पूजा स्वीकार नहीं किया । एक दिन नाराज होकर माता ने उस पण्डित ब्राह्मण को मन्दिर से ही उठा कर बाहर फेंक दिया, जो एक पेड़ से जा टकराया और उसकी वहीं पर मौत हो गई माँ वनदुर्गा के भक्त गण इस घटना के बाद विचार-विमर्श किया और राजा की सहमति से विश्वनाथ सिंह पाहन को पुजारी के रूप में रखा गया ।,सन 1957 में दक्षिण भारतीय एक सन्यासी भ्रमण करते हुए केरसई गाँव पहुँचा । केरसई से भ्रमण करते हुए वनदुर्गा स्थल पहुँचकर माता का दर्शन किया । सन्यासी ने माँ वनदुर्गा की विशेषता को बताते हुए इस छेत्र को माता का विशेष कृपा बताया । सन्यासी ने ग्रामीणों से यज्ञ करने का प्रस्ताव रखा । लोगों ने यज्ञ करने की प्रस्ताव पर सहमत हो गए । वहीँ प0 मदन गोपाल मिश्रा का कोई सन्तान नहीं था । उन्हें सन्यासी ने यज्ञ करने की सलाह दिया । इसके बाद ग्रामीणों ने मिलकर उस सन्यासी के देखरेख में यज्ञ शुरू कर दिया । यज्ञ के दौरान यज्ञ स्थल के आस पास चारो ओर साँप, बिच्छू आदि अनगिनत संख्या में निकल आए। वहीँ दूसरी ओर उत्तर दिशा से शेर गरजते हुए यज्ञ स्थल के चारो ओर घूमते हुए माता की उत्पत्ति स्थल की ओर चला गया। किसी को कोई छति नहीं हुई । इसी बीच यज्ञ में हवन के दौरान घी कम पड़ गई । सन्यासी ने पास के ही बाईल धोवा नदी में कुछ लीगों को भेजकर तीन टीन नदी का जल मंगवाया । वह जल यज्ञ स्थल पहुंचते- पहुँचते घी में परवर्तित हो गया । यज्ञ की समाप्ति के पश्चात तीन टीन घी इकठ्ठा करके बाइलधोवा नदी में प्रवाहित कर घी वापस कर दिया गया । सन्यासी ने सारी घटना को माता की अपार महिमा बताया । उस सन्यासी के द्वारा भेंट स्वरूप दिया गया तलवार आज भी प्रमाण के रूप में मौजूद है । सन 1984 में माँ वनदुर्गा की उत्पत्ति स्थल को लेकर हिन्दू और ईसाइयों के बीच विवाद हो गया । दोनो पक्ष के लोगों ने बोलबा थाने में अपनी- अपनी शिकायतें दर्ज कराई । विवाद के दौरान माता की उत्पति स्थल महादान टोंगरी में एक और मूर्ति मिली । जिसका नाम माँ समलेश्वरी रखा गया । विवाद का समझौता कराने के लिए बोलबा थाना के ठाकुर सिंह, एसडीओ शिवपूजन राम, डीएसपी रामदयाल उराँव एवं अन्य अधिकारी विवादित स्थल पहुंचे । इस दौरान ईसाइयों द्वारा गाड़े गए क्रूस को वापस उखाड़कर ले गए । हिन्दुओ ने अपना झंडा नहीं हटाया । अधिकारियों ने झंडा एवं मूर्ति को वहाँ से उठाकर अपने साथ ले गए । इसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों ने दैविक प्रकोप से परेशान हो गए । डीएसपी एवं एसडीओ ने माफी माँगते हुए मूर्ति को वनदुर्गा समिति को वापस कर दिया । वर्तमान में महादान टोंगरी पर एक छोटा सा मन्दिर माता के भक्तों ने निर्माण किया है । बताया जाता है कि माँ समलेश्वरी, माँ वनदुर्गा की छोटी बहन है ।सन 1987 में विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुआ ,जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में जशपुर के राजा दिलीप सिंह जूदेव उपस्थित थे । इसके साथ श्री श्री 1008 श्री जयराम प्रपन्नाचार्य जी महाराज मुख्य संरक्षण, महन्त चैतन्त्य जी महाराज , विश्व हिंदू परिषद के प्रणय दत्त, भैयाराम मुंडा, आगासाय जी, निर्मल कुमार, मलकण्ड जी , श्यामलाल शर्मा, हनुमान बुंदिया, जगदीश अग्रवाल, नंदकिशोर अग्रवाल मुख्य रूप से उपस्थित थे । इस मौके पर कार्यक्रम को सफल बनाने में मदन गोपाल मिश्र, विजय श्रीवास्तव, नागेश्वर प्रसाद, रामदयाल राम, रामवरण साहू, गया प्रसाद, हीरा सिंह, श्याम शंकर प्रसाद, बालकृष्ण प्रसाद, मंगतू सिंह, एतवा सिंह, यदुवर सिंह, अलख सिंह, चम्मा खलखो, बीजा खलखो, जगरनाथ प्रधान, बिदा सिंह, कंदरु सिंह, मिठवा सिंह, भौवा सिंह आदि का योगदान सराहनीय रहा ।
माँ वनदुर्गा की महात्म्य
माँ वनदुर्गा दक्षिण मुखी है, उग्र स्वरूपा है कोप भी करती है यहाँ शक्ति तंत्र तुरंत सिध्द हो जाता है ।हर भक्त जो सच्चे मन से माँ वनदुर्गे की दरबार में आता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती है यह जागृत मन्दिर है । उड़ीसा , छत्तीसगढ़, बिहार, बंगाल आदि राज्यों एवं दूर-दूर से लोग मन्नत माँगने आते हैं वर्तमान में सभी धर्मों के लोग यहाँ आकर मन्नत मांगते हैं यहाँ बलि प्रथा है । मन्नत पूरी होने के पश्चात लोग बकरे की बलि अर्पण करते हैं । माँ वनदुर्गे की महिमा दिनोदिन बढ़ती जा रही है । 1984 में मन्दिर बनकर तैयार हो गया ।धीरे धीरे लोंगों का सहयोग मिलता गया । यहाँ बजरंगबली हनुमान जी का विशाल मूर्ति माता के सन्मुख बिराजमान है ।सन 2018 में माँ वनदुर्गे की एक भब्य मन्दिर का निर्माण जन सहयोग से किया गया कलश यात्रा में 500 से अधिक महिलाएँ कलश उठाई ,जिसका उदघाट्न झारखण्ड राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास जी के कर कमलों द्वारा किया गया था।